Moral Story: सच्चा दान

सम्राट वीरभद्र के दान की कहानियां लोक विख्यात हो चुकी थीं। उनके संबंध में यह कहा जाता था कि द्वार पर आने वाला कोई भी याचक उनके यहां से खाली हाथ नहीं जाता था। प्रातः होते ही राजमहल के द्वार पर याचकों की भीड़ लग जाती।

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सच्चा दान

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Moral Story सच्चा दान:- सम्राट वीरभद्र के दान की कहानियां लोक विख्यात हो चुकी थीं। उनके संबंध में यह कहा जाता था कि द्वार पर आने वाला कोई भी याचक उनके यहां से खाली हाथ नहीं जाता था। प्रातः होते ही राजमहल के द्वार पर याचकों की भीड़ लग जाती और वीरभद्र अपने महल से निकलकर याचकों को पर्याप्त दान दिया करते थे। (Moral Stories | Stories)

प्रतिष्ठा और सम्मान की चाहत में डूबे सम्राट दान देने में पात्र-कुपात्र का विचार नहीं करते थे। इस ओर सोचने की उन्हें फुरसत ही नहीं थी। इस तरह दान देने के कारण राजकोष खाली होता चला गया। इस भारी-भरकम दान के अलावा राजपरिवार की सुख-सुविधाओं के लिए भी पर्याप्त धनराशी खर्च होती थी। इस प्रकार खाली होते राजकोष को भरने के लिए जनता पर नए-नए कर लगाने पड़े। एक ओर जहां लोग सम्राट की दान-शीलता का गुणगान करते थे वहीं कर-भार और अन्य अव्यवस्थाओं के प्रति उनमे असंतोष भी व्याप्त था। 

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इस असंतोष का लाभ उठाकर राज्य को अपने राज्य में शामिल करने के लिए पड़ोसी राजा ने वीरभद्र के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया गया और राजा वीरभद्र को रानी सहित बंदी बना लिया गया। शारीरिक यातना एवं मानसिक प्रताडना से परेशान होकर एक दिन वे दोनों ही बंदीगृह से भाग निकले। (Moral Stories | Stories)

बंदीगृह से भाग निकलने के बाद उनके पास कोई साधन तो थे नहीं, जिससे उन दोनों का गुजारा चलता। इसलिए दोनों वन-वन...

बंदीगृह से भाग निकलने के बाद उनके पास कोई साधन तो थे नहीं, जिससे उन दोनों का गुजारा चलता। इसलिए दोनों वन-वन भटकने लगे। एक दिन रानी से रहा न गया। उसने राजा से कहा- "सुना है सेमरगढ़ नगर का एक सेठ पुण्य खरीदा करता है। आप तो जीवन भर दान देते रहे हैं। यदि हम लोग सेमरगढ़ जाकर अपने दान पुण्य का एक अंश बेच दें, तो उससे कम से कम भरपेट भोजन की व्यवस्था तो जुट ही सकती है"। 

वीरभद्र भी रानी के इस विचार से सहमत हो गया और दोनों सेमरगढ़ को चल पड़े जिस स्थान पर वे लोग भटक रहे थे वहां से सेमरगढ़ काफी दूर पड़ता था। अतः मार्ग में निर्वाह की व्यवस्था के लिए दोनों पति-पत्नी को मजदूरी बड़ी मुश्किल से मिल पाई। उस दिन केवल इतना ही कुछ कमाया जा सका कि जैसे-तैसे चार रोटियां बनाई जा सकें। इतना आटा लेकर ही वे आगे का रास्ता तय करने के लिए निकल पड़े। चलते-चलते शाम हो गई, तो वे एक गांव में ठहर गये। आस-पास के वृक्षों से लकड़ियां तोड़कर आग जलायी आर मोटी-मोटी चार रोटियां सेंक लीं। (Moral Stories | Stories)

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रोटियां तैयार करने के बाद वे ग्रास तोड़ने ही वाले थे कि एक भिखारी रोटी मांगता हुआ वहां आया और बुरी तरह गिड़गिड़ाने लगा। वीरभद्र के स्वभाव में दया और उदारता तो थी ही।उसने अपने पास की दोनों रोटियां भूख से व्याकुल भिक्षुक को दे दीं। शेष दोनों रोटियों में से पति-पत्नी दोनों ने एक-एक रोटी खा ली।

इसी तरह किसी प्रकार चलते-चलते राजा-रानी सेमरगढ़ पहुंचे। सेठ के सामने पहुंचने पर उन्होंने अपने आने का उद्देश्य बता दिया। सेठ ने कहा- "आप अपने जिन पुण्यों को बेचना चाहते हैं उन्हें एक कागज पर लिखकर इस तराजू के पलडे में रख दीजिए"। 

राजा ने वैसा ही किया, परन्तु तराजू ज्यों की त्यों बनी रही। यह देखकर सेठ राजा से बोला- "ऐसा प्रतीत होता है कि आपने अनीति और अधर्म की कमाई का दान दिया है"। (Moral Stories | Stories)

सेठ की बात सुनकर राजा और रानी आगे कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पाये और लज्जा से गर्दन नीची करके जमीन की ओर देखने लगे। उनकी यह स्थिति देखकर सेठ ने कहा- "मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूं, निराश न हों आप किसी ऐसे पुण्य का स्मरण करें, जो ईमानदारी से अर्जित कमाई द्वारा संचित किया गया हो"। 

वीरभद्र काफी देर तक सोचते रहे। फिर उन्हें पिछले दिन वाली घटना याद आई, जब उन्होंने अपने हाथ से भिखारी को अपने सामने की रोटी खाने के लिए दे दी थी। भिखारी को रोटी दान में देने की बात एक कागज पर लिखकर उन्होंने उसे तराजू के पलडे पर रख दिया। दूसरे ही क्षण राजा ने देखा कि पलडा नीचे झुक गया है। सेठ ने अनेक स्वर्ण-मुद्राएं तराजू के दूसरे पलडे पर रखीं, फिर भी कांटा बराबर न हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से पुण्य  के लिए सेठ को पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं रखनी पड़ीं, तब कहीं जाकर कांटा बीचों-बीच आया।

यह देखकर राजा वीरभद्र को समझ में आ गया कि दान वही सार्थक होता है जो ईमानदारी द्वारा अर्जित धन से किया जाये। उन्हें अपनी भूल पर मन ही मन पश्चाताप होने लगा। (Moral Stories | Stories)

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